माँ बनना — एक दूसरा जन्म
“जिस्म से जली थी मैं... अब रूह ने साँस ली।”
जब मैंने पिछली बार कैमरे से मुँह मोड़ा था, तब सोचा था कि सब खत्म हो गया... लेकिन असली ज़िंदगी तो वहीं से शुरू हुई थी।
एक सुबह शरीर अजीब महसूस हुआ। घबराकर डॉक्टर के पास गई। उन्होंने मुस्कुराकर कहा —
“बधाई हो, आप माँ बनने वाली हैं।”
मैं ठिठक गई। वो दिन जैसे किसी पुराने घाव को फिर से कुरेद रहा था।
“किसका बच्चा है?” — ये सवाल खुद से पूछने लगी। जवाब पता नहीं था, पर उस मासूम के लिए दिल में अजीब सी ममता जाग उठी।
मैंने तय कर लिया — चाहे जो हो, ये बच्चा मेरा होगा।
शूट्स बंद कर दिए। नाम, शौहरत, पैसा... सब छोड़ दिया। विनीता मौसी के कॉल्स बंद कर दिए। भूख लगी, किराया नहीं था, मगर पेट पर हाथ रखकर सो जाती थी।
हर हफ़्ते खुद से कहती —
“अब मैं सिर्फ औरत नहीं, एक माँ हूँ।”
फिर वो दिन आया — हॉस्पिटल की सिली सी सफेद चादर पर मैंने एक चीख के साथ उसे जन्म दिया।
डॉक्टर ने गोद में दिया — छोटा सा, कांपता हुआ, मासूम सा बच्चा।
मैं रोई... बहुत रोई। लेकिन पहली बार वो आँसू सुकून के थे।
नाम रखा — आरव।
आरव अब मेरी दुनिया था। उसकी पहली मुस्कान मेरी सारी जिल्लतें धो गई।
अब उसकी हँसी में खुदा नजर आता है, और उसकी नींद में मेरा चैन।
हर बार जब उसकी आँखें मुझसे टकराती हैं, तो जैसे वो कहता है —
“माँ, तुमने सब कुछ सहा... ताकि मैं मुस्कुरा सकूँ।”
मैं अब शूट नहीं करती। मैं सिर्फ रोटियाँ बनाती हूँ, कहानियाँ सुनाती हूँ, और उसके साथ छत पर चाँद देखती हूँ।
Alia Kaur अब सिर्फ एक नाम है।
मगर ‘माँ’ — वो मेरा नसीब है।