मेरा जन्म – जो मैं थी, वो बनने की इजाज़त नहीं थी
मेरा नाम सिम्मी है। जब मैं पैदा हुई, तो लोगों ने मिठाई नहीं बाँटी — क्योंकि मैं "लड़का" पैदा हुई थी, पर मन और आत्मा से लड़की थी।
मुझे बचपन से गुड़ियों से खेलना अच्छा लगता था, माँ की साड़ी पहनकर आईने के सामने खड़े होना अच्छा लगता था, लेकिन पापा को ये सब "बदतमीज़ी" लगती थी।
एक बार 8 साल की उम्र में मैंने माँ की बिंदी चुरा कर अपने माथे पर लगा ली थी — पापा ने बेल्ट से मारा, और कहा, "अबे छक्का बनेगा तू?"
उस दिन मैं पहली बार टूटी थी। पर मैं समझ गई थी कि ये दुनिया मुझे समझने वाली नहीं है।
स्कूल, ताने और पहचान की लड़ाई
स्कूल में बच्चे मुझे "हिजड़ा", "नर-मादा", और न जाने क्या-क्या कहते थे।
मैं क्लास में सबसे चुप रहती, बस एक कोने में बैठ जाती — काश मैं गायब हो पाती, अदृश्य हो पाती।
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9वीं क्लास में मेरी एक टीचर ने एक दिन कहा, "तुम बहुत अलग हो, लेकिन बुरे नहीं।" वो पहली इंसान थी जिसने मेरी आँखों में दर्द नहीं, इंसान देखा था।
धीरे-धीरे मुझे समझ आने लगा कि मैं अकेली नहीं हूँ। जैसे मैं महसूस करती हूँ, वैसे और भी लोग होते हैं — उन्हें कहते हैं "ट्रांसजेंडर"।
मैंने अपने बारे में पढ़ना शुरू किया, YouTube पर कहानियाँ देखीं, और फिर एक रात अपने सामने आईने में देखा और कहा — "तू गलत नहीं है सिम्मी, तू खुद में पूरी है।"
माँ का साथ और समाज की दीवारें
जब मैंने माँ को बताया कि मैं लड़का नहीं, लड़की हूँ — तो वो चुप रहीं। फिर धीरे से बोलीं, "तू जैसी है, मुझे मंज़ूर है। बस दुनिया से लड़ने का हौसला रखना।"
माँ मेरी ढाल बन गईं। लेकिन पापा ने एक दिन घर से निकाल दिया — कहा, "मेरे घर में ऐसे लोग नहीं रह सकते।"
मैं रेलवे स्टेशन पर रातें बिताने लगी। एक समय ऐसा भी आया जब भूख से बेहोश हो गई थी।
तब मुझे कुछ ट्रांस महिलाएं मिलीं जो NGO के साथ जुड़ी थीं। उन्होंने मुझे सहारा दिया, हॉस्टल में जगह दिलवाई।
मैंने सिलाई सीखी, मेकअप सीखा, लोगों के सामने बोलना सीखा। और फिर एक दिन, मैंने स्टेज पर पहली बार अपनी कहानी सुनाई — मेरे पैर काँप रहे थे, लेकिन आँखें चमक रही थीं।
स्टेज की रोशनी और खुद की पहचान
अब मैं एक मोटिवेशनल स्पीकर बन चुकी थी। कॉलेज, सेमिनार, सोशल मीडिया पर मेरी कहानियाँ वायरल होने लगीं।
एक दिन मेरी माँ पहली बार मेरे किसी कार्यक्रम में आईं। वो पीछे बैठी थीं, चुपचाप, पर उनकी आँखें चमक रही थीं।
कार्यक्रम के बाद उन्होंने मुझे गले लगाकर कहा, "तू अब किसी की शर्म नहीं, मेरी सबसे बड़ी ताकत है।"
आज मैं सिम्मी हूँ — जो सड़क पर ठुकराई गई, पर स्टेज पर सराही गई।
एपिलॉग:
अगर तुम ये पढ़ रहे हो, तो याद रखना — किसी की पहचान पर शक मत करो। जो वो है, वही उसकी सच्चाई है।
हमने ये रास्ता खुद नहीं चुना... पर अब इस पर सिर उठाकर चलते हैं।
*मैं सिम्मी हूँ — और अब मुझे खुद से शर्म नहीं, गर्व है।*